
ALAM PORLE
अन्तर्राष्ट्रीय लोक-नृत्य उत्सव के रूप में विश्वविख्यात कुल्लू दशहरा अपनी माटी की महक खोने लगा है। धीरे धीरे इस लोकोत्सव का तिलिस्म टूटता जा रहा है। अब इस उत्सव में न तो पहले जैसे लोकनृत्य होते हैं, और न ही मिट्टी के दिए टिमटिमाते हैं। अब मिट्टी के दिये का स्थान झिलमिलाते बिजली के बल्बों ने लिया है और सांस्कृतिक कार्यक्रम लालचन्द प्रार्थी कलाकेन्द्र तक ही सिमटकर रह गए हैं।
कुल्लू दशहरे को लोकनृत्यों से प्रसिद्धि मिली, मगर आज लोक नृत्य पर मुम्बईया संस्कृति हावी हो चुकी है। दशहरा की परंपरा रही है कि यहां देवता व मनुष्य साथ-साथ झूमते व नाचते हैं। यहां के लोकनृत्य, यहां की माटी व यहां के लोगों की रगो में रचे बसे हैं। जहां कहीं भी नज़र जाती है, लोग मेले के दौरान अपनी परंपरागत वेशभूषा में वाद्य-यन्त्रों की लय पर एक दूसरे की बांहों में बांहें डालकर झूमते गाते नज़र आते है। नृत्य व गीत का यह आलम होता है कि ढोल-नगाड़ों की थाप, करनाल व शहनाई की स्वरलहरियों संग नाटी नाचते है, तो कहीं पर देवताओं के रथों को नचाया जाता है।
बदलते दौर में यह अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लोकनृत्योत्सव अपनी वास्तविक पहचान खोता जा रहा है। कभी यहां पर लोगों को कुल्लवी नाटी के अलावा हिमाचल के दूसरे हिस्सों में नाचे जाने वाले लोकनृत्यों, अन्य राज्यों की लोक-संस्कृतियों के अलावा विदेशी लोक-नर्तकों के नृत्यों को देखने का मौका मिलता था, मगर आज यहां की सांस्कृतिक फिज़ा बदल चुकी है। आयोजकों द्वारा लाखों रूपए व्यावसायिक दलों तथा मुम्बईया कलाकारों पर लुटाए जा रहे हैं, जिन्हें विभिन्न टीवी चैनलों में हर रोज़ देखते व सुनते हैं। यह उल्लेख करना जरुरी है कि स्व. लाल चन्द प्रार्थी ने कुल्लू कला केन्द्र का निर्माण स्थानीय कलाकारों को मंच प्रदान करने के लिए किया था, किन्तु आज यह मंच पूरी तरह से मुम्बईया और व्यावसायिक कलाकारों के साथ बिचौलिए के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया है।
सियासतदानों ने इस मंच को पूरी तरह से अपनी बपौती बनाकर रख दिया है। यहां कलाकारों को मौका उनकी काबिलियत के आधार पर नहीं, बल्कि राजनेताओं की सिफारिश पर दिया जाता है। कलाकेन्द्र में अधिकतर बेसुरे कलाकारों को ही तरज़ीह दी जा रही है। परफॉर्मेंस के नाम पर आयाराम-गयाराम वाला फार्मूला अपनाया जा रहा है। सवाल है क्या कुल्लू दशहरा के पौराणिक और पारम्परिक स्वरूप स्वरूप में लाने की पहल करेगा?