हिमाचल न्यूज़ | राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भारत में फिल्मकारों के लिए सबसे बड़ा सम्मान है। फ़िल्म की सभी विधाएं इस में शामिल है। भारत की श्रेष्ठ फ़िल्में इस में चयनित होती है। क्षेत्रीय फिल्मों और फिल्मकारों के लिए तो ये वरदान है। फिल्मकार और राज्य का नाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पटल पर आ जाता है, जब उन्हें भारत के राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया जाता है।
सवाल ये है कि क्या ये खूबसूरत सार्थक फ़िल्में जो भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधित्व करती है, दर्शको तक पहुंचती है? बड़े दुख की बात है कि ये सरकारी समारोह में ही सिमट कर रह जाती है।
रिजिनल सिनेमा के निर्माता बहुत आर्थिक अभाव में अपना पैसा लगा कर फ़िल्म बनाता है। फ़िल्म बनाने के बाद उस के पास फ़िल्म की पब्लिसिटी और रिलीज़ करने का भारी भरकम पैसा नही होता। इसलिए वो सिनेमा हॉल तक नहीं आती और अगर आ भी जाये तो पब्लिसिटी की कमी के कारण दर्शकों को थियेटर तक लाने में असफल रहती है।
2012-13 तक ऐसा नही था। जिस भी फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलता था उसे दूरदर्शन 3 साल के लिए लेता था और निर्माता को 25 लाख रुपये देता था। उसके आगे और चलाने पर अलग से पैसे देता था। इस से भारत का अपना सार्थक सिनेमा दर्शको तक पहुंचता था और निर्माता को कुछ पैसा मिल जाता था। जिस से सिनेमा बनाने वालों का और फ़िल्म बनाने का मनोबल बना रहता था।
ये सार्थक फ़िल्में बिना सरकारी सहयोग के न तो बन सकती है और न ही दर्शकों तक पहुंच सकती है। क्योंकि, OTT और प्राइवेट चैनल तो एक अलग ही दिशा पकड़े हैं। फ़िल्म में स्टार, सेक्स, वायलेंस और भारतीय संस्कृति को खराब कर के दिखाए उन के लिए वही फ़िल्म महत्वपूर्ण है। सार्थक सिनेमा या रिजिनल सिनेमा के लिए कोई जगह नही है।
हाल ही में बनी हरियाणवी फ़िल्म ‘पंडित लखमीचंद’ राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हुई है। मराठी फिल्म ‘पैठणी’, और भी सम्मानित फिल्मे गांव-गांव में दर्शको तक दूरदर्शन ही पहुंचा सकता है। बर्ष 2013 के बाद राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त की सभी फ़िल्में दूरदर्शन पर जरूर चलनी चाहिए ताकि ये सार्थक फ़िल्में दर्शकों तक पहुंचे और भारतीय सिनेमा पर गर्व करे।
पहले तय समय पर फ़िल्में डायरेक्टर ऑफ फ़िल्म फेस्टिवल फिल्मों को लेते थे और एक पक्की तारीख पर फिल्मे देखी जाती थी। तय समय पर राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया जाता था। लेकिन बहुत दुख की बात है कि अब कोई तय कार्यक्रम नहीं रहा। कब फ़िल्में मंगा कर देखी जाएगी, कोई नहीं जानता।
इस उदासीनता के कारण फिल्मकार एक साफ-सुथरी सार्थक फ़िल्म बनाने में असमर्थ है और मसाला घटिया फ़िल्म बनाने की तरफ जा रहा है। जिस सिनेमा का हम बायकॉट कर रहे है उस सिनेमा की जड़े हिल जाएगी अगर सरकार OTT दर्शक और बड़े प्रोड्क्शन हाऊस सार्थक फिल्मों के साथ सहयोग करे। (OTT माफिया का जिक्र विस्तार से अगले लेख में)
क्षेत्रीय या प्रादेशिक अलग-अलग भारतीय भाषाओं और बोलियों में बने सिनेमा ही है जो भारतीय सिनेमा को प्रस्तुत करता रहा है, देश में भी और अंतराष्ट्रीय मंच पर।

पवन कुमार शर्मा (फ़िल्म निर्देशक)
पवन कुमार शर्मा (फ़िल्म निर्देशक)
(लेखक भारतीय सिनेमा के जाने माने फ़िल्म निर्देशक है। इन्होने ब्रिना, करीम मुहम्मद और वन रक्षक फिल्मों का निर्देशन किया है।)
Posted By : Himachal News
फोटो - हिमाचल न्यूज़
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